तुम ही कहो ये शहर किसका है

 

इन बंद रहते दरवाजो के पीछे कितनी उम्मीदें नाउम्मीद हुई,
हंसी ठहाकों की सुध नही, मुलाकातें अब झूठी मुस्कान में तब्दील हुई,
असली नकली समझना मुश्किल क्योंकि नक़ाब के पीछे चेहरा है,
पत्थर को पूजे इंसान को मारे , वैराग्य और ज्ञान भी यहां कोरा है।
तुम ही कहो ये शहर किसका है।


आशियाँ बनाने चले थे जो, वो कमरों में रोते हैं छुप कर,
इंसान भागे दिन-रात समय के जैसे, अपना समय ही जाता भूल,
सड़कों पर जगमग उजाला, मन मे अंधेरा हर पल,
समय और अंधेरा ही चुभता दिल में जैसे निरंतर रहे कोई शूल
तुम ही कहो ये शहर किसका है।


आंखों में सपने बड़े, हम चले थे शहर की ओर,
वो स्वप्न दूर कहीं अब, जो देता है हर आशा को तोड़,
पतंग सा मन जो छूना चाहे आसमान को, पर मन उचाट
उम्मीद के पंख ठिठके, डोर भी छोटी जो खींचे कोई और
तुम ही कहो ये शहर किसका है।


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