दिन और रात



सुबह चाय की प्याली तेरी जब चर्चा करे,
होठों की छुअन जब प्याली पर हो,
अवचेतन मन मे चेतना हो जैसे,
और फिर तेरा जिक्र मन मे गहरा जाये।

दोपहर करे प्रतीक्षा तेरी, अरुणाई सी खिले,
हरारत तेरी धड़कनों में स्पंदन जैसी जीवित,
अल्प परछाई, लिप्त सत्यतता से,
आसक्त हूँ अतृप्त नहीं , लेकिन अंतर्नाद है विस्मित।

सांझ में अस्तित्व तेरा जब दे आहट आसमाँ में,
सामर्थ्य शाम की, रात और दिन को पृथक करे,
मंद होता प्रकाश, आशा किंचित,
दो नयन जैसे मिले नही, पर साथ रहे।

रात स्वप्न में, तेरे साये का अहसास,
उस तिमिर में तस्वीर एक धुंधली सी,
जुस्तजू मिलन की जो निरर्थक,
कहकशां नवस्वप्न है तम में।


टिप्पणियाँ

Chitra ने कहा…
वाह, शुद्ध हिन्दी शब्दों के प्रयोग को देख खुश व अचंभित दोनो थी कि अंत मे अचानक थोड़ी उर्दू आ गयी। कविता में उर्दू का प्रयोग गलत नहीं है लेकिन पूरी कविता में एक साम्यता हो तो पाठक उसी लय में बहता है, हिन्दी या उर्दू कविता के पाठक के लिए अचानक जुबां/ बोली/भाषा बदल जाना छोटा सा स्पीड ब्रेकर जैसा है।

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